तुम्ही हो ब्रह्मा, तुम्ही हो विष्णु,
तुम्ही तो निर्बीज महादेव हो।
राजोगुन भी हो, तमोगुणी भी,
शुक्लवर्णी सत्वगुणी तुम्ही हो।
तुम्ही सृजन, संहार तुम्ही से,
सृष्टि तुम्हारी, प्रजा तुम्हीं से।
रिक, यजू औ सामवेद तुम्ही से,
वेद तुम्ही हो, योग तुम्ही से।
ब्रह्मरूप, आनंदस्वरुप,
तुम त्यागरूप, कल्याणरूप हो।
सिद्ध हो तुम, सर्वज्ञ तुम्ही हो,
मोक्षरूप रूद्रदेव तुम्ही हो।
गुरु तुम्हीं हो, पिता तुम्ही हो,
अर्धनारीश्वर, मात तुम्ही हो।
अ - कार, उ - कार, म- कार तुम्ही हो,
ओंकारमूर्त, प्रणव तुम्हीं हो।
श्वेत हंस रूप ब्रह्मा को,
वराह रूप वृहद विष्णु को,
ओंकार नाद से, लिंगरूप में,
ज्ञान दिया जो, महेश्वर तुम्ही हो।
हिमलिंग तुम, ऊर्ध्वलिंग तुम,
व्योम व्याप्त शिवलिंग तुम्ही हो।
आदि तुम्ही से, अंत तुम्ही से,
देवाधिदेव आदिदेव तुम्ही हो।
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जेठ (व्यंग्य)
बड़े हो गए उम्र से, बाल हो गए सफेद।
दिल तो तिल जैसे बडो, माने खुद को जेठ।।
सबको भला बुरा कहें, ज्ञान देत हैं पेल।
कोई जब आइना दिखाए, मुंह लेवे तब फेर।।
हम कहें सब साच हैं, हमको हक़ है सारा।
तुम छोटे, कुछ हक़ नहीं, जों है सब है म्हारा।।
जेठ हुए, सब हक़ मिले, उसका कोई ना अंत।
छोटे बस चुप चाप रहें, बड़ भले बोले अनंत।।
आसक्ति, विरक्ति और अनासक्ति
आसक्ति और विरक्ति के अलावा एक और शब्द है अनासक्ति। लोग प्रायः पहले दो शब्दों में उलझ कर रह जाते हैं। अधिकांशतः लोग किसी ना किसी व्यक्ति या वस्तु से आसक्त होकर जीते हैं और वो आसक्ति ही दुःख का कारण बनती है। जब बहुत दुखी हो गए तो विरक्त होने की चेष्टा में लग जाते हैं। बहुदा योग , ध्यान और साधना को विरक्ति का साधन मान बैठते हैं। कोई योग कर रहा है या ध्यान साधना कर रहा है तो प्रायः यही समझा जाता है कि "बाबा" बन गए। लगता है दुखी होकर वैरागी बन जाएंगे। वैरागी होना आसान नहीं। विरक्ति सबके लिए नहीं है। श्रीमद भागवत के अनुसार हम सब जानते हैं कि श्री कृष्ण ने तीन योग बताए - ज्ञान योग, कर्म योग और भक्ति योग। भक्ति योग में सांसारिक आसक्तियों से दूर होकर प्रभु की भक्ति में लीन होने के तरीके और उसके महत्व को बताया गया है। भक्ति योग सबसे सर्वोत्तम माना जाता है। ज्ञान योग में पार्थसारथी ने मनुष्य, प्रकृति और ब्रह्म ज्ञान का महत्व बताया। श्रीमद भागवत के महत्व को वास्तव में कर्म योग बढ़ाता है। पुरातन काल से आजतक, साधारण गृहस्थ से लेकर पेशेवर व्यापारियों और अधिकारियों तक सभी के लिए जो सफल जीवन का मूल मंत्र है वो कर्म योग में ही बताया गया है। और कर्मयोग बताता क्या है - अनासक्ति। श्रीमद भागवत में प्रभु ने कहा है - यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन । कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥ ३.७ हे अर्जुन जो व्यक्ति मन से इंद्रियों को वश में करके निष्काम भाव से या अनासक्त होकर कर्मेंद्रियों से कर्मयोग करता है वो श्रेष्ठ है। आगे प्रभु कहते हैं - नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन । न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥ ३.१८ तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर । असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः।। ३.१९ उस कर्मयोग से सिद्ध पुरुष का ना ही कर्म करने से प्रयोजन है ना ही उसका कर्म ना करने से प्रयोजन है। और पूरे जगत में वह किसी से भी स्वार्थ का संबंध नहीं रखता। इसलिए तुम सदा अनासक्त रहकर कर्म करो क्योंकि अनासक्त पुरुष कर्म करता हुआ परमात्मा को प्राप्त करता है। इस पूरे भागवत संवाद में कर्मयोग ही जनमानास के लिए है। पर क्या वास्तव में कर्मयोग का अभ्यास भी इतना आसान है? हम नौकरी करते हैं पर साथ में धन, सम्मान और तरक्की की आशा होती है। परिवार व समाज से जुड़े होते हैं और कभी कुछ करते हैं तो अन्दर ये आशा होती है कि बदले में वो कभी हमारी किसी ना किसी तरह से मदद करेगा। कुछ नहीं तो अच्छा व्यवहार करेगा , सम्मान देगा। क्या इन अपेक्षाओं को छोड़ पाना इतना आसान है? अनासक्त रहते हुए भी कर्म करते रहना आसान है? अंत में - मैं कोई ज्ञानी नही, प्रवचन देने वाला गुरु नहीं। पढ़ने और अभ्यास की कोशिश में लगा हुआ पतित हूं।
यादें हमारी तुम्हारी
वो लम्हे जाने कहां गए,
जब आंखो में सपने होते थे।
आंखों में खुमारी होती थी,
हर पहर सुनहरे होते थे।
जब दिल भी हमारा जिन्दा था,
धड़कन में सरगम बजती थी।
करवट करवट, सिलवट सिलवट,
यादों की गवाही देते थे।
सारी दुनिया जब सोती थी,
हम भोर तलक जागे रहते।
कुछ बात तुम्हारी होती थी,
बस याद तुम्हारी होती थी।
सोचा था वक्त भी थम जाए,
हम ख्वाब वही जीते जाएं।
पर कहां गए सपने सारे,
अब कहां गई बातें सारी।
हम दुनियादारी में व्यस्त हुए,
तुम ख्वाब दफ़न करने हो लगे।
अब कहां हमीं हम ही हैं बचे,
अब कहां हमारी बात रही।
जाने क्यों ऐसा लगता है,
हम हम ना रहे , तुम तुम ना रहे।
-(भ्रमर)
उधार सी जिंदगी
जिंदगी उधार सी क्यों लगती है, जी लिए, अब बस चुकाने में लगे हैं। -(भ्रमर)
प्रदुषण
कभी भोर की, शाम की, कुहरे वाली ठंड होती थी।
अब कुहरे से भरी दुपहरी भी है,
अफसोस ठंड नहीं,धूल भरी होती है।
-(भ्रमर)
अधूरी नज्म
अधूरी नज्म, अनकही गज़ल सी जिंदगी ,
अब कहें किससे , सुनाए किसको।
-(भ्रमर)
सीसे के घर
घरों में इंट नहीं, सीसे के दीवार हैं बनने लगे,
रिश्तों में भी नज़ाकत है बढ़ी,
जल्दी से बिखरने वो लगे।
-(भ्रमर)
रूठना मनाना
अब किसी के पास मनाने का वक्त कहां,
पर रूठ हर बात पर सब जाते हैं।
जज़्बात सिमट गए हैं जमाने के,
शिकायतें भर के हैं, वही उगल दिए जाते हैं।
कोई क्या सोचेगा, अब ये भी लिहाज़ कहां,
मैं के आगे, सब लोग झुके जाते हैं।
-(भ्रमर)
कोशिश
चलो सोने की जुगत करते हैं,
यादों के ख्वाब कुछ जीते है।
डायरी के पीले पन्नों को,
अब सहेज कर फिर रखते हैं।
सुबह फिर से खो जाना है,
रात खुद से चलो मिलते हैं।
-(भ्रमर)