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श्री शिव महापुराण - विद्येश्वर संहिता के अनुसार
सर्वविदित होना चाहिए कि ब्रह्मा और विष्णु अहंकार वश जब आपस में युद्ध करने लगे तो महादेव सदाशिव लिंग रूप में अवतरित हुए थे। लिंग स्वरूप महादेव के अवतरण के दिन को ही शिवरात्रि के नाम से जाना जाता है।
महादेव आगे विष्णु और ब्रह्मा को ज्ञान देते हुए कहते हैं कि मैं ही परम ब्रह्म हूं। मैं सगुण और निर्गुण दोनो रूप में हूं। मैं निष्कल लिंग रूप में भी पूजनीय हूं और पंचमुख धारण किए सकल साक्षात रूप में भी।
मेरा उत्तरवर्ती मुख से अकार, पश्चिम मुख से उकार, दक्षिण मुख से मकार, पूर्ववर्ती मुख से बिंदु तथा मध्यवर्ती मुख से नाद उत्पन्न हुआ। इन पांच अवयवों से मिलकर वह प्रणव 'ॐ' एक अक्षर बना। प्रणव मंत्र शिव और शक्ति दोनो का बोधक है। इसी प्रणव मंत्र से पंचाक्षर मंत्र - "ॐ नमः शिवाय" की उत्पत्ति हुई है। उसी से शिरोमंत्र तथा चार मूखों से गायत्री प्रकट हुई। गायत्री से वेद प्रकट हुए। वेदों से करोड़ों मंत्र निकले। मंत्रों से सभी कार्य सिद्ध होते हैं। परन्तु इस प्रणव से और पंचाक्षर मंत्र से संपूर्ण मनोरथ सिद्ध होते हैं। इस मूल मंत्र से भोग और मोक्ष दोनो की सिद्धि होती है।
महादेव कहते हैं कि प्रणव मंत्र उनका ही स्वरूप है। इसके निरंतर जाप से मुक्ति मिल जाती है। वैसे तो महादेव के निष्कल और सकल दोनो रूप हैं पर मुमुक्षु पुरुष को लिंग का ही पूजन करना चाहिए। लिंग रूप महादेव का ओंकार मंत्र से और सकल रूप महादेव को पंचाक्षर मंत्र से पूजन करना चाहिए।
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