एकाक्षराय रुद्राय अकारायात्मरूपिणे । उकारायादिदेवाय विद्यादेहाय वै नमः ।। १ तृतीयाय मकाराय शिवाय परमात्मने । सूर्याग्निसोमवर्णाय यजमानाय वै नमः ।। २ अद्वितीय तथा नाशरहित प्रणवरूप रुद्रको नमस्कार है। अकाररूप परमात्मा तथा उकाररूप आदिदेव विद्यादेहको नमस्कार है ।। १ ।। तीसरे मकाररूप परमात्मा शिव और सूर्य-अग्नि-चन्द्रवर्णवाले रुद्र तथा यजमानरूपवाले महादेवको नमस्कार है ।। -- श्री लिंग महापुराण (अध्याय १८) ओंकार की महत्ता अलग अलग जगहों पर अलग अलग प्रतीकों में की गई है। प्रणव ही संबल है, प्रणव ही साधन है, प्रणव ही साध्य है। प्रणव ही ब्रह्म है, प्रणव ही ब्रह्मज्ञान है। प्रणव ही ब्रह्मा हैं, प्रणव ही विष्णु है, प्रणव ही महेश हैं। प्रणव से ही वेद है, प्रणव ही वेदज्ञान है। 🙏🙏
शिव की लिंग रूप में पूजन
श्री लिंग महापुराण (अध्याय -१७) में श्री ब्रह्मा और श्री विष्णु के सम्मुख उमापति महेश्वर के ज्योतिर्मय लिंग स्वरूप में प्रकट होने का वर्णन है। जब ब्रह्मा और विष्णु अहंकार वश खुद को सृष्टि का पालक, संहारक और कर्ता बताकर लड़ने लगे तो उस समय महादेव एक दीप्तिमान लिंग के रूप में प्रकट हुए जिसका ना ओर दिख रहा था ना छोर। ब्रह्मा और विष्णु दोनो इसे देख मोहित हो गए और फिर ये क्या है ऐसा जानने के लिए प्रयासरत हुए।
ब्रह्मा ने श्वेत वर्णी हंस का रूप लिया और ऊपर की तरफ चल पड़े और विष्णु ने विशाल वराह रूप लेकर नीचे की तरफ गए। पर दोनो को ना उस अग्नि स्तंभ का मूल दिखा ना ही अंत।
थक कर दोनो जब वापस आए और हाथ जोड़ खड़े हुए तो ओंकार नाद सुनाई पड़ा। तब उन्हे आदि, मध्य और अंत से रहित आनंद रूप से शुद्ध स्फटिक रूप में प्रभु रूद्रदेव शिव के दर्शन हुए। तत्पश्चात उन्हे वेद ज्ञान, प्रणव की महत्ता और ब्रह्मज्ञान मिला।
महादेव ने उस समय भगवान विष्णु को ५ मंत्र दिए, जो इस प्रकार है :
१) ओंकार से उत्पन्न शुभ्र वर्ण वाला पवित्र ईशान मंत्र -
"ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानां ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणोऽधिपतिर्ब्रह्मा शिवो मे अस्तु सदाशिवोम् ।।"
२) गायत्री से उत्पन्न हरित वर्ण वाला अत्यूतम मंत्र -
"तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि । तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ।।"
३) अथर्ववेद से उत्पन्न कृष्णवर्ण वाले अघोर मंत्र -
"अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्यः । सर्वेभ्यः सर्वशर्वेभ्यो नमस्ते अस्तु रुद्ररूपेभ्यः ।।"
४) यजुर्वेद से उत्पन्न श्वेत वर्ण वाले साद्योजात मंत्र -
"सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमोनमः । भवे भवे नाति भवे भवस्व मां भवोद्भवाय नमः ।।"
५) सामवेद से उत्पन्न रक्त वर्ण वाला उत्तम मंत्र -
"वामदेवाय नमो ज्येष्ठाय नमः श्रेष्ठाय नमो रुद्राय नमः कालाय नमः कलविकरणाय नमो बलविकरणाय नमो बलाय नमो बलप्रमथनाय नमः सर्वभूतदमनाय नमो मनोन्मनाय नमः ।।"
इन्हीं पांच मंत्रों के साथ भगवान विष्णु ने फिर पुरातन पुरुष महादेव ब्रह्माधिपति शिव की स्तुति गान किया।
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शिव और अद्वैत
ॐ
श्री शिव महापुराण - रुद्र संहिता (अध्याय -१२) में भगवान शिव की पूजन के बारे में बताया गया है।
वैसे तो मुक्ति के लिए महादेव की शिवलिंग रूप में पूजन श्रेष्ठ है पर इस अध्याय में अभ्यांतर सूक्ष्म लिंग की अद्वैत भाव से को गई पूजा को सर्वश्रेष्ठ बताया गया है।
ब्रह्मा जी कहते हैं -
कर्मयज्ञसहस्रेभ्यस्तपोयज्ञो विशिष्यते ।
तपोयज्ञसहस्रेभ्यो जपयज्ञो विशिष्यते ॥ २.१.१२.४५ ॥
ध्यानयज्ञात्परं नास्ति ध्यानं ज्ञानस्य साधनम् ।
यतस्समरसं स्वेष्टं यागी ध्यानेन पश्यति ॥२.१.१२. ४६ ॥
मतलब कर्ममय सहस्रों यज्ञों (कर्म कांडों) से तप यज्ञ श्रेष्ठ है। तप यज्ञ से जप यज्ञ श्रेष्ठ है और जप से श्रेष्ठ ध्यान यज्ञ। ध्यान से योगी अपने इष्ट महादेव का साक्षात्कार करता है। महादेव भी ध्यान यज्ञ में तत्पर रहने वाले उपासक के सानिध्य में रहते हैं। ब्रह्मा जी कहते हैं कि जो विज्ञान से संपन्न है उनकी शुद्धि के लिए किसी प्रायश्चित की आवश्यकता नहीं है।
आगे कहा गया है -
लिंगं द्विविधं प्रोक्तं बाह्यमाभ्यंतरं द्विजाः ।
बाह्यं स्थूलं समुद्दिष्टं सूक्ष्ममाभ्यंतरं मतम् ॥२.१.१२.५१ ॥
कर्मयज्ञरता ये च स्थूललिंगार्चने रताः ।
असतां भावनार्थाय सूक्ष्मेण स्थूलविग्रहाः ॥२.१.१२.५२ ॥
ज्ञानिनां सूक्ष्मममलं भावात्प्रत्यक्षमव्ययम् ।
यथा स्थूलमयुक्तानामुत्कृष्टादौ प्रकल्पितम्।२.१.१२.५४॥
जो कर्म में लिप्त हैं वो बाह्य अथवा स्थूल लिंग की पूजन करें पर ज्ञानियों के लिए सुक्ष्मलिंग की पूजा का विधान है। मतलब की वो ध्यान में स्वयं में महादेव को मानते हुए पूजन करें।
ये अध्याय पढ़ने पर पता चलता है कि द्वैत रूप में मूर्ति पूजन की जरूरत श्रद्धालुओं को क्यों है। मूर्ति पूजन वास्तव में आगे बढ़ने का एक आलंबन मात्र है। भगवान ने ये भी कहा है कि ध्यान और ज्ञान मार्ग से योगी अद्वैत भाव में शिवमय हो सकते है।
सामान्य भाषा में कहें तो ये उसी तरह है कि अध्ययन में आप अगर प्राथमिक स्तर पर हैं तो आपको गुरुजन और पुस्तकों का आलंबन लेना पड़ता है पर एक अवस्था पार कर लेने पर आप स्वयं सक्षम हो जाते है और ज्ञानार्जन कि मार्ग पर आगे बढ़ सकते हैं।
भक्ति और मुक्ति के मार्ग पर हम अधिकांश जन प्राथमिक अवस्था में ही संपूर्ण जीवन बिता देते हैं। इस लिए सब ईश्वर, मूर्ति, ब्राह्मणों और मंदिरों पर निर्भर रह जाते हैं। पर अगर योग्यता और इच्छाशक्ति है तो सदगुरु मिल ही जाते हैं, जिनके सानिध्य से आप ज्ञान प्राप्त करते हैं। अंततः सतत प्रयास से, शिव ध्यान से द्वैत भाव खत्म हो जाता है। जब द्वैत - अद्वैत का ये द्वंद खत्म होता है तब साधक स्वयं शिव स्वरूप हो जाता है।
पर ऐसे ज्ञानी भक्त विरले ही होते हैं। और शिवभक्ति का आनंद ऐसा है कि कभी तृप्ति नहीं होती। शिव भक्त शिवमय हो जाने पर भी निस्कल सूक्ष्म शिव की भक्ति को तब तक नहीं छोड़ता है जब तक कि मोक्ष नहीं मिल जाता है।
ॐ नमः शिवाय।