ॐ
श्री शिव महापुराण - रुद्र संहिता (अध्याय -१२) में भगवान शिव की पूजन के बारे में बताया गया है।
वैसे तो मुक्ति के लिए महादेव की शिवलिंग रूप में पूजन श्रेष्ठ है पर इस अध्याय में अभ्यांतर सूक्ष्म लिंग की अद्वैत भाव से को गई पूजा को सर्वश्रेष्ठ बताया गया है।
ब्रह्मा जी कहते हैं -
कर्मयज्ञसहस्रेभ्यस्तपोयज्ञो विशिष्यते ।
तपोयज्ञसहस्रेभ्यो जपयज्ञो विशिष्यते ॥ २.१.१२.४५ ॥
ध्यानयज्ञात्परं नास्ति ध्यानं ज्ञानस्य साधनम् ।
यतस्समरसं स्वेष्टं यागी ध्यानेन पश्यति ॥२.१.१२. ४६ ॥
मतलब कर्ममय सहस्रों यज्ञों (कर्म कांडों) से तप यज्ञ श्रेष्ठ है। तप यज्ञ से जप यज्ञ श्रेष्ठ है और जप से श्रेष्ठ ध्यान यज्ञ। ध्यान से योगी अपने इष्ट महादेव का साक्षात्कार करता है। महादेव भी ध्यान यज्ञ में तत्पर रहने वाले उपासक के सानिध्य में रहते हैं। ब्रह्मा जी कहते हैं कि जो विज्ञान से संपन्न है उनकी शुद्धि के लिए किसी प्रायश्चित की आवश्यकता नहीं है।
आगे कहा गया है -
लिंगं द्विविधं प्रोक्तं बाह्यमाभ्यंतरं द्विजाः ।
बाह्यं स्थूलं समुद्दिष्टं सूक्ष्ममाभ्यंतरं मतम् ॥२.१.१२.५१ ॥
कर्मयज्ञरता ये च स्थूललिंगार्चने रताः ।
असतां भावनार्थाय सूक्ष्मेण स्थूलविग्रहाः ॥२.१.१२.५२ ॥
ज्ञानिनां सूक्ष्मममलं भावात्प्रत्यक्षमव्ययम् ।
यथा स्थूलमयुक्तानामुत्कृष्टादौ प्रकल्पितम्।२.१.१२.५४॥
जो कर्म में लिप्त हैं वो बाह्य अथवा स्थूल लिंग की पूजन करें पर ज्ञानियों के लिए सुक्ष्मलिंग की पूजा का विधान है। मतलब की वो ध्यान में स्वयं में महादेव को मानते हुए पूजन करें।
ये अध्याय पढ़ने पर पता चलता है कि द्वैत रूप में मूर्ति पूजन की जरूरत श्रद्धालुओं को क्यों है। मूर्ति पूजन वास्तव में आगे बढ़ने का एक आलंबन मात्र है। भगवान ने ये भी कहा है कि ध्यान और ज्ञान मार्ग से योगी अद्वैत भाव में शिवमय हो सकते है।
सामान्य भाषा में कहें तो ये उसी तरह है कि अध्ययन में आप अगर प्राथमिक स्तर पर हैं तो आपको गुरुजन और पुस्तकों का आलंबन लेना पड़ता है पर एक अवस्था पार कर लेने पर आप स्वयं सक्षम हो जाते है और ज्ञानार्जन कि मार्ग पर आगे बढ़ सकते हैं।
भक्ति और मुक्ति के मार्ग पर हम अधिकांश जन प्राथमिक अवस्था में ही संपूर्ण जीवन बिता देते हैं। इस लिए सब ईश्वर, मूर्ति, ब्राह्मणों और मंदिरों पर निर्भर रह जाते हैं। पर अगर योग्यता और इच्छाशक्ति है तो सदगुरु मिल ही जाते हैं, जिनके सानिध्य से आप ज्ञान प्राप्त करते हैं। अंततः सतत प्रयास से, शिव ध्यान से द्वैत भाव खत्म हो जाता है। जब द्वैत - अद्वैत का ये द्वंद खत्म होता है तब साधक स्वयं शिव स्वरूप हो जाता है।
पर ऐसे ज्ञानी भक्त विरले ही होते हैं। और शिवभक्ति का आनंद ऐसा है कि कभी तृप्ति नहीं होती। शिव भक्त शिवमय हो जाने पर भी निस्कल सूक्ष्म शिव की भक्ति को तब तक नहीं छोड़ता है जब तक कि मोक्ष नहीं मिल जाता है।
ॐ नमः शिवाय।
Om – The source of ultimate knowledge (Part 1)
ॐ
“ॐ” – हममे से कई आज भी जब कागज पर, कॉपियों में कुछ लिखते हैं ये ओमकार शब्द सबसे पहले लिखते है। कई “ॐ गणेशाय नमः” लिखते है। हमने ये शायद अपने माता पिता से सीखा हो, या किसी गुरुजन के कहने पर या किसी को देख कर। पर ऐसा करते है। अब डिजिटल हो जाने के कारण शायद नहीं करते या कम करते हैं। लिखने के अलावा जब भी हम मंत्र जाप करते हैं तो हर मंत्र के आरम्भ में ओमकार लगाते है। हम ऐसा करते हैं क्योंकि ऐसा करते आये है। पर क्या कभी सोचा है की ये ॐ का इतना महत्त्व सनातन धर्म में क्यों है? क्या कभी सोचा है की वास्तव में इसका इतना महत्त्व क्यों है? बृहदरन्यक उपनिषद् के पाठों को पलटते पढ़ते एक मंत्र पढ़ा – “ॐ खं ब्रह्म । ” ( अध्याय ५। १ )। मतलब “ओमकार ही वृहद् आकाश रूपी ब्रह्म है। आदिगुरु शंकर के भाष्य के अनुसार यहाँ ओमकार ही परम ब्रह्म है ऐसा मानते हुए ध्यान करना चाहिए। उत्सुकता हुई इंटरनेट सर्च किया और भी डिजिटल के साथ साथ फिजिकल पन्ने भी पलटे तो देखा की उपनषिदों में तो “ॐ” के महत्व या ये कहूँ तो ओमकार के साथ ध्यान करने के महत्त्व को बार बार बताया गया है। मुण्डकोपनिषद् के दूसरे खंड में एक ऋचा है – प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते। अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत् तन्मयो भवेत् ॥ प्रणव (ओमकार का जाप) धनुष है, आत्मा तीर और परम ब्रह्म लक्ष्य हैं। अगर चित्त को स्थिर करके बिना गलती के ये किया जाये तो तीर लक्ष्य को भेद देता है। मतलब स्थिर चित्त से ओमकार को साधन मानते हुए परम ब्रह्म को ध्यान किया जाये तो ब्रह्म की प्राप्ति होती है। पूरा माण्डूक्य उपनिषद् का विषय ही ओमकार है और इसके आरम्भ में कहा गया है – ओमित्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानं भूतं भवद् भविष्यदिति सर्वमोङ्कार एव। यच्चान्यत् त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव ॥ मतलब ॐ ही सब कुछ है – भूत, वर्तमान, भविष्य। इस त्रिकाल के अलावा भी कुछ है तो वो ॐ है।
छान्दोग्य उपनिषद् जो की सामवेद पर आधारित है उसके आरम्भ में कहा गया है – “ओमित्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत। ” अर्थात ॐ उधगीत है , ॐ पर ध्यान करो इसी की उपासना करो।
कठोपनिषद, जिसमे की यम और नचिकेता के संवाद के द्वारा ब्रह्म ज्ञान और मोक्ष प्राप्ति के साधन को बताया गया है, के द्वितीय वल्ली में यम नचिकेता से कहते हैं – सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति। यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् ॥ एतद्ध्येवाक्षरं ब्रह्म एतद्ध्येवाक्षरं परम्। एतद्ध्येवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत् ॥
जिस परम पद /शब्द का गुणगान वेदों में है, सभी तप उसी को बताती हैं, सभी उसी को पाने के लिए ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं वो परम पद “ॐ” है। यही अक्षर परम तत्त्व या परम ज्ञान है। अगर कोई इस अक्षर को जान ले तो वो जिसकी भी इच्छा करता है, वो उसे मिल जाता है ।
अब आप सोचेंगे की ये तो अध्यात्म और ब्रह्म की बातें है। इसमें विज्ञान कहाँ। आज के युग में योग को तो विज्ञान माना जाने लगा है। योग और ध्यान (मैडिटेशन) मानसिक उन्नति के लिए मान्य साधन है। अब आप अगर प्राणायाम करते हैं तो एक प्राणायाम है उद्गीथ प्राणायाम जिसमे प्राणवायु को छोड़ते समय ॐ का उच्चारण करते है। वास्तव में ये ओमकार का ही जाप है। इसको करने से एकाग्रता तो बढ़ती ही है साथ ही साथ ये चित्त को शांत भी करता है। हम सभी इस भाग दौड़ वाली जिंदगी से जब थकते हैं , परेशान होते हैं तो सभी गुरुजन और ज्ञानी कहते हैं मैडिटेशन या ध्यान करो। मन शांत होगा। पर वास्तव में मैडिटेशन अथवा ध्यान की अवस्था आती कहाँ है , बस दो घडी बैठ पाते हैं, मन वहां भी भागता ही रहता है। पर अगर उस समय थोड़ा प्रयास करके श्वासों के आने जाने पर ध्यान केंद्रित करें और ओमकार का जाप करें तो कुछ समय (ये समय वास्तव में कुछ नहीं, बहुत होता है) चित्त स्थिर होने लगता है। ध्यान की अवस्था तो शायद मुनिजन और तपस्वी ही पा पाते होंगे। पर अगर थोड़ा सा भी चित्त स्थिर होता है और आप अपने मन और दिमाग को एकाग्र करके अंतर्मुखी बनाते हैं तो मन और मस्तिष्क की क्षमता को बढ़ा पाएंगे। अगर अध्यात्म और ब्रह्मज्ञान को जाने भी दें तो हमारे पुरातन ऋषि और मुनिजन इस योग विज्ञान को कितना अच्छे से जानते थे ये सब इन उपनिषदों में संकलित है।
अंत में : – मैं कोई ज्ञानी नहीं, वेदांती नहीं। लेख कहीं से टीपा हुआ नहीं है। ये मेरा अपना मनन और चिंतन है जो बिना किसी गुरु के सानिध्य के है इस लिए इसके शत प्रतिशत गलत होने कि सम्भावना ज्यादा है। आप कहेंगे फिर लिखा क्यों? तो मेरा जवाब फिर वही होगा कि अपनी समझ बनाना और लेखनी को मजबूत करना। क्या पता इस चक्कर में कुछ समझ आ जाये या फिर कोई रास्ता मिल जाय। आप कहेंगे कि क्या मैं इस लिखे का अभ्यास भी करता हूँ? शायद हाँ शायद ना।
References:
- The Principal Upanisads – S. Radhakrishan
- Vrihadaranyak and Chandogya Upanishad- Shankar Bhasya from Gita Press
- Translations & Explanations by Swami Chinmayanand
- https://www.swami-krishnananda.org/index.html
- https://upanishads.org.in/
- https://www.wisdomlib.org
- Various google links if you search on “Om”, “Importance of Om”, “Om in Vedas & Upanishads”
जेठ (व्यंग्य)
बड़े हो गए उम्र से, बाल हो गए सफेद।
दिल तो तिल जैसे बडो, माने खुद को जेठ।।
सबको भला बुरा कहें, ज्ञान देत हैं पेल।
कोई जब आइना दिखाए, मुंह लेवे तब फेर।।
हम कहें सब साच हैं, हमको हक़ है सारा।
तुम छोटे, कुछ हक़ नहीं, जों है सब है म्हारा।।
जेठ हुए, सब हक़ मिले, उसका कोई ना अंत।
छोटे बस चुप चाप रहें, बड़ भले बोले अनंत।।
Superiority of Breath and Oneness – प्राणवायु का महत्व
उपनिषदों को वेदांत कहते हैं। वेदों में जहाँ मन्त्रों और कर्मकांडो की व्याख्या की गई है वहीँ उपनषदों में उनके आध्यात्मिक पहलु को समझाया गया है। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से कुछ उपनिषद् बुद्ध काल से पहले लिखे गए और कुछ बाद मे। गौतम बुद्ध और उनके सिद्धातं वेदों को महत्त्व नहीं देते थे पर ध्यान से अवलोकन करने पर लगता है कि कम से कम उपनिषदों के दर्शन और बुद्ध के दर्शन में समानताएं है। अब बुद्ध उनसे कितना प्रभावित थे ये सिद्ध करना मेरा उद्देश्य नहीं है और मैं उस लायक भी नही। मैं समानताओं की भी व्याख्या नहीं कर सकता पर जो भी थोड़ा बहुत पढ़ा उसमें से एक बात समझ आई कि उपनिषदों में कर्मकांडों के बजाये आध्यात्मिक रूप से “अहम्” की बात कि गई है। ये अहम् घमंड वाला अहम् नहीं वरन “अहम् ब्रह्मस्मि” वाला अहम् है। यहाँ मुझे जो मतलब समझ आता है कि ब्राह्मणो के शरण में जाकर कर्मकांड में लिप्त होने के अलावा अगर खुद को उस ब्रह्म से जोड़ा जाये और उस दिशा में बढ़ा जाये तो भी मुक्ति संभव है। बुद्ध ने भी वही कहा। उनके नज़र में भी खुद समझ पाना ही निर्वाण का रास्ता है। अब ये जितना कहना आसान है, समझना और अपनाना उतना ही मुश्किल है।
खुद को ब्रह्म जैसा बनाने अथवा अहम् ब्रह्मास्मि वाली अवस्था में आने के लिए जो ज्ञान दिया गया वो है “ध्यान” लगाने का ज्ञान , वो ध्यान भी सही जगह सही तरीके से लगाने का। वो तरीका है अपने प्राण वायु पर ध्यान लगाने का। अब जरा सोचिये जितने भी मैडिटेशन के और योग के प्रकार हैं चाहे वो बुद्धिज़्म के हों या फिर परंपरागत सनातन योग विज्ञानं के, सभी प्राण वायु पर ही ध्यान लगाने को कहते है। और फिर उस ध्यान को सभी अंगों पर घुमाने को कहते है। ये सारी योग विद्याएं काफी बाद में विस्तार में लिखी गईं पर इन सबका आधार आपको उपनिषदों में मिल जायेगा।
उपनिषदों में ऐतिहासिक दृश्टिकोण से वृहदारण्यक उपनिषद् प्राचीन है। काफी वृहद् ( बड़ा ) है इस लिए ऐसा नाम भी। इसी उपनिषद् के अध्याय एक के तीसरे ब्राह्मण में प्राण वायु का महत्त्व शरीर के बाकी अंगों से अधिक बताया गया है। ये बताया गया है कि कैसे प्राण वायु पर ध्यान करके आप देव स्वरुप भावनाओं (पॉजिटिव एनर्जी ) को असुर रूपी (नेगेटिव एनर्जी ) नकारत्मकता से जीता सकते है।
अध्याय एक ब्राह्मण तीन में प्रजापति और उनके पुत्रों देवताओं और असुरों के बीच में प्रभुत्व पाने की होड़ की कहानी को बताया गया है। कहा गया की देवताओं ने असुरों पर विजय पाने के लिए अस्त्रों के बजाय मन्त्रों का सहारा लेने को सोचा। वो सामरिक युद्ध के बजाय दिव्य शक्तियों से युद्ध करके विजय पाना चाहते थे। उसके लिए उन्होंने ने सामवेद में उद्धारित उद्गीथ मन्त्रों के जाप को सोचा। अब जाप करे तो कौन करे? तो उन्होंने सबसे पहले सबसे पहले उन्होंने ने अपनी वाणी को कहा “उद्गीथ” । वाणी ने समन पढ़ना शुरू कर दिया। असुरों ने देखा कि देव तो अजेय हो जायेंगे तो उन्होंने वाणी पर आक्रमण किया और उसे अपवित्र कर दिया। देव दुविधा में पद गए अब क्या करे। फिर उन्होंने नाक से कहा “उद्गीथ”, नाक ने समन जाप शुरू किया। असुरों ने उसे भी अपवित्र कर दिया। फिर देवों ने नेत्रों से उद्गीथ कहा , असुरों ने उसे भी अपवित्र कर दिया। फिर कान की बारी आई , वो भी अपवित्र कर दिए गए। फिर देवों ने मन से कहा पर वो भी असुरों ने अपवित्र कर दिया। अंत में देवताओं ने प्राण वायु को कहा “उद्गीथ” । प्राण वायु ने सामान जाप शुरू किया। जैसे ही असुरों ने प्राण वायु पर आक्रमण किया वो मिटटी के ढेले कि तरह बिखर गए। वो ख़त्म हो गए वो देवताओं ने आखिर में विजय प्राप्त किया।
आगे इस अध्याय में प्राण शक्ति, मृत्यु पर विजय और सृष्टि कि उत्पत्ति के बारे में लिखा गया है। मैं अभी आगे नहीं बढ़ पाया और अपनी ही सोच में डूब गया। अब इसको मैं योग और प्राणायाम से जोड़ कर देखूं तो सोच पाता हूँ कि जो भी संवेदनाओं वाले अंग प्रत्यंग हैं उनके अपवित्र होने की सम्भावना प्रबल है। मन भटक जाता है , वाणी अक्सर बुरा कहती है। कान और आँख बुरे पर जल्दी टिकते है। पर प्राण वायु पवित्र रहती है। अगर प्राण वायु पर ध्यान किया जाये, प्राणायाम से इसे सिद्ध किया जाय। उद्गीथ प्राणायाम जिसमे ओमकार या कोई और मंत्र जोड़ प्राणायाम किया जाता है, किया जाये तो प्राण वायु पवित्र होती होती है।
प्राणायाम और ध्यान से प्राण वायु को पवित्र करने के बाद फिर ध्यान को धीरे धीरे और अंगो पर केंद्रित किया जाये तो वो भी पवित्र होने लगते है। जब आपका मन और शरीर पवित्र होगा तो निश्चय ही मोक्ष कि प्राप्ति होगी। इसी मानसिक और शारीरिक पवित्रता कि बात भारत वर्ष में उपजे और दुनिया भर में फैले सभी सनातन संप्रदाय करते है। और ये सभी संप्रदाय इसी योग से मोक्ष पाने कि बात करते है। चाहे वो बुद्ध धर्म या फिर जैन संप्रदाय।
अंत में : मैं कोई ज्ञानी नहीं, वेदांती नहीं। लेख कहीं से टीपा हुआ नहीं है। स्व्यम की खोज में वृहदारण्यक उपनिषद् पढ़ना शुरू किया, पहले अध्याय में उलझते उलझते ये मेरी धरना बनी चूँकि ये मेरा अपना मनन और चिंतन है जो बिना किसी गुरु के आशीर्वाद के है इस लिए इसके शत प्रतिशत गलत होने कि सम्भावना ज्यादा है। आप कहेंगे फिर लिखा क्यों? तो मेरा जवाब फिर वही होगा कि अपनी समझ बनाना और लेखनी को मजबूत करना। क्या पता इस चक्कर में कुछ समझ आ जाये या फिर कोई रास्ता मिल जाय। आप कहेंगे कि क्या मैं इस लिखे का अभ्यास भी करता हूँ? अब मैं क्यों बताऊँ आपको? आपको सही लगे तो सोचें, अभ्यास करें नहीं लगे तो पढ़ें, मनन करें और मुझे भी सही बात बताएं।
References:
https://www.swami-krishnananda.org/brdup/brhad_I-03.html
Ajivika – A less known heterodox sect
We all know when it comes to religion, faith and associated philosophy, there are two typical tradition or path - "Astika(Orthodox) and "Nastika" (Heterodox). Orthodox follows Vedic rituals.In ancient India (even now in modern India) orthodox society rely heavily on Brahmans when it comes to rituals and ceremonies. Buddhism and Jainism were two major Anastik or Heterodox philosophy arose during sixth century BCE. A very less known but another prominent Heterodox school of thought was "Ajivika". In fact historically, this philosophy precedes Jainism and Budhism. Many historians links it with Jainism as well. Unfortunately no ancient literature is available on this philosophy. People of this sect were supported by Maurya Empire specially at the time of Bindusara. Their presence soon started declining and they survived mainly around Mysore until 14th century CE. After that there is no mention of this sect in history. Ajivikas did not believe in role of Karma in destiny. In fact they are known for the concept of 'Niyati' i.e., absolute determination. As per this doctrine, everything that has happened, is happening and will happen is preordained. It is opposed to the concept of Karma which says our present condition is due to past actions and Karma can influence future. Its an interesting philosophy and many a times we talk about Karma and Niyati. But little was known as a fact that this concept of Niyati was a well established doctrine in Indian History. Our history is full of mystery many known many unknowns. I read about it while my quest to read and understand ancient history & philosophy and found this interesting piece of history, so thought to share.
Truth is Pathless Land – J. Krishnamurti
J. Krishnamurti, born on 11 May 1895 in South India was adopted by Dr. Annie Besant, the then president of Theosophical Society. Same Dr. Besant who was part of Indian National Congress. Jiddu Krishnamurti was identified & groomed as the New World Teacher of Theosophical Society.
He was mentored, trained and groomed to become a teacher, philosopher, speaker who will spread the message of “The Order of the Star in the East” to the world. He meant to be leading the agenda of the Theosophical Society. An occult organization which tried to mix east and west.
An organization which was influenced by Vedic Philosophy, Buddhism & Sufism. The idea was to create a brotherhood, understand and analyze the philosophies of various religions and then create an organization to give a new path, philosophy and create a new spiritual realm.
They also briefly collaborated with Arya Samaj and Swami Dayanand Saraswati, who disassociated later on. They shared ideas with Swami Vivekananda as well. But there again things did not work out. Coming back to Jiddu Krishnamurti, he dissolved The Order of the Star in the East in 1929 and disassociated himself from the occult organization. Why??? Because he felt – “Truth is Pathless land”. No religion or Sect can lead you to the truth. Interested people should read his dissolution speech here – https://jkrishnamurti.org/about-dissolution-speech
The fact is, to know the truth you need to be free, boundless, limitless and all religions, sects they bind you, they impose restrictions on you. They make you weak. Spirituality has no religion. To know the ultimate truth you don’t need to be associated with any religion. Why am I writing this? Why am I doing this Samvaad to myself? Because recently many intellectuals discussed on Social Media about “Yoga Being associated with specific religion”. True, it originated in India at the “time” of which there is no written history of India..
All ideas, philosophies were told, they were shrutis. whatever is written were written later. Who knows who wrote what? Documented history, their translation came out very late when travelers from world came here in curiosity and wrote their travelogues.
Coming back to Yoga, it’s a science has philosophy to know the ultimate Truth. It’s a path if you take and continue can lead to the ULTIMATE. It can free you from all boundaries.
So, as Jiddu Krishnamurti said, if you really want to be free, boundless, limitless & know the ULTIMATE TRUTH, you cannot be associated with any religion, any organization, any sect. You really need to be free to seek the truth. Yoga is path, which can’t be bound to any religion.
All current day religions, sects, groups, organizations are nothing but an occult which binds you, which prohibits you to know the TRUTH. It’s a political movement to keep you confused, fearful & controlled. Controlled by few – Mullahs, Gurus, Political Leaders.
So, who Am I by the way – a) Religious – Yes b) Fearful – Yes c) Controlled – Yes d) Fool – Yes e) Ultimately a confused individual, a seeker who does not have any GURU. Tried multiple times to find a GURU but heart never felt like following current day GURUS.
I pray, I chant, I meditate, I worship, I bow down to GOD. But who is GOD? I do not know…..
Who will tell me? I am still waiting……..
प्राणायाम और योग से व्यक्तित्व निर्माण
आप जो सोचते हैं, वो आपके शब्द बन जाते हैं। शब्द और सोच आपका व्यक्तित्व। आपका व्यक्तित्व आपकी जीवन शैली, अपने परिवार और आस पास के समाज पर प्रभाव डालता है। आपकी सोच, व्यक्तित्व और जीवन के पीछे आपके संस्कार भी होते है। कुछ इस जन्म के और कुछ पिछले जन्म के। बहुत से लोग जिनका शब्दों और अपने व्यवहार पर नियंत्रण होता है वो अपनी सोच और कर्म दोनो में अंतर भी रख पाते हैं। ऐसे लोग सही हैं या गलत ये पता लगा पाना बहुत मुश्किल होता है। हर मीठी चीज फायदेमंद हो जरूरी नहीं पर ये भी सच है कि कसेलापन नुकसान भले ही ना करे मुंह का स्वाद जरूर खराब कर देता है। इस लिए कड़वा बोलने और सीधे बात करने वाले लोग बहुत पसंद नहीं किए जाते। पर मीठे बोलने वाले पर विश्वास सोच समझ कर, परख कर करना चाहिए। बहुत कम इंसान होते हैं जो एक जैसा व्यवहार हमेशा, हर किसी के लिए रखते है । अधिकांशतः दोहरा जीवन जीते हैं। बहुत कम होते हैं जो वास्तव में मन से या सोच से, वचन से और कर्म से एक हो पाते हैं। ये स्थिरता, अच्छाई और सच्चाई के साथ लेकर आना ही जीवन का उद्देश्य होना चाहिए। तभी आप अपने आपको पा पायेंगे। योग और ध्यान आपको इस उद्देश्य को पाने में मदद करते हैं। प्राणायाम और ध्यान खासकर चित्त को स्थिर करते हैं। योग आपके शरीर को तैयार करता है। आपके शरीर की विभिन्न गतियों और श्वास के बीच तालमेल स्थापित करता है। स्नायु तंत्र और मस्तिष्क में मजबूती और स्थिरता लाता है। प्राणायाम आपके प्राण वायु को स्थिर और उन्नत करता है। जब आपकी इडा और पिंगला के बीच सामंजस्य स्थापित हो जाता है तो आप ध्यान लगा पाने को तैयार होते हैं। ध्यान की भी कई अवस्थाएं हैं या मैं कहूं तो चरण होते हैं। पहले चरण के ध्यान में आप अपनी सोच का निरक्षण करते हैं, ये महसूस कर पाते हैं कि आप क्या सोच रहे हैं और साथ ही साथ अपनी सोच को भटकते हुए देख पाते हैं। अगले चरण में आप उसको नियंत्रित कर पाते है और ऐसी स्थिर अवस्था में आते हैं जिसमें आप कुछ सोच नहीं रहे होते। मन भटकता नहीं है। ऐसी ही अवस्था के अभ्यास से आप अपनी सोच, विचार , वाणी और व्यवहार पर नियंत्रण कर पाते हैं। इस अभ्यास से ही आप संपूर्ण रूप से एक होने की राह पर अग्रसर होते हैं। यहीं से संस्कारों के बदलने की यात्रा आरंभ होती है। आप अपने पिछले सारे संस्कार नहीं बदल पाएंगे पर आगे की यात्रा सही कर पाएंगे। मन, वाणी और व्यवहार पर नियंत्रण शुद्ध होता जाता है। अबका आपका व्यवहार परिमार्जित होता है। आपके अन्दर का दोहरापन, और भ्रम खत्म होता है। ये शुद्धता और नियंत्रण ना केवल आपको अपने आप के साथ जोड़ कर एक करता है बल्कि आपको उस परम पुरुष के साथ जुड़ने में भी मदद करता है जो सबका अंतिम लक्ष्य होता है। ये ज्ञान कोरा नहीं है। ये अवस्था पाना, अभ्यास पर निर्भर करता है। जब जब आप अभ्यास में हैं, आप ये सब महसूस कर पाएंगे वरना अभ्यास खत्म और आप अपने आप को वापस वहीं खड़ा कर पाएंगे। ये अस्थिरता, स्थिरता, नियंत्रण, भटकाव, एकाग्रता, अच्छाई, सच्चाई सब या तो आपके अभी और पूर्व जन्म के संस्कार हैं। आप जो पाना चाहते हैं अगर वो संस्कारों से नहीं मिला तो योग और ध्यान के अभ्यास से ही मिलेगा। अंत में - ये सब मेरा एक अनुभव है और ये लेख वास्तव में मेरे और मेरे अन्तःकरण का संवाद है, जिसमें "आप" वास्तव में "मैं" खुद ही हूं। शायद ये मेरा दोहरापन है और मैं एक होने की राह पर अभी भटक रहा हूं।
आसक्ति, विरक्ति और अनासक्ति
आसक्ति और विरक्ति के अलावा एक और शब्द है अनासक्ति। लोग प्रायः पहले दो शब्दों में उलझ कर रह जाते हैं। अधिकांशतः लोग किसी ना किसी व्यक्ति या वस्तु से आसक्त होकर जीते हैं और वो आसक्ति ही दुःख का कारण बनती है। जब बहुत दुखी हो गए तो विरक्त होने की चेष्टा में लग जाते हैं। बहुदा योग , ध्यान और साधना को विरक्ति का साधन मान बैठते हैं। कोई योग कर रहा है या ध्यान साधना कर रहा है तो प्रायः यही समझा जाता है कि "बाबा" बन गए। लगता है दुखी होकर वैरागी बन जाएंगे। वैरागी होना आसान नहीं। विरक्ति सबके लिए नहीं है। श्रीमद भागवत के अनुसार हम सब जानते हैं कि श्री कृष्ण ने तीन योग बताए - ज्ञान योग, कर्म योग और भक्ति योग। भक्ति योग में सांसारिक आसक्तियों से दूर होकर प्रभु की भक्ति में लीन होने के तरीके और उसके महत्व को बताया गया है। भक्ति योग सबसे सर्वोत्तम माना जाता है। ज्ञान योग में पार्थसारथी ने मनुष्य, प्रकृति और ब्रह्म ज्ञान का महत्व बताया। श्रीमद भागवत के महत्व को वास्तव में कर्म योग बढ़ाता है। पुरातन काल से आजतक, साधारण गृहस्थ से लेकर पेशेवर व्यापारियों और अधिकारियों तक सभी के लिए जो सफल जीवन का मूल मंत्र है वो कर्म योग में ही बताया गया है। और कर्मयोग बताता क्या है - अनासक्ति। श्रीमद भागवत में प्रभु ने कहा है - यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन । कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥ ३.७ हे अर्जुन जो व्यक्ति मन से इंद्रियों को वश में करके निष्काम भाव से या अनासक्त होकर कर्मेंद्रियों से कर्मयोग करता है वो श्रेष्ठ है। आगे प्रभु कहते हैं - नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन । न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥ ३.१८ तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर । असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः।। ३.१९ उस कर्मयोग से सिद्ध पुरुष का ना ही कर्म करने से प्रयोजन है ना ही उसका कर्म ना करने से प्रयोजन है। और पूरे जगत में वह किसी से भी स्वार्थ का संबंध नहीं रखता। इसलिए तुम सदा अनासक्त रहकर कर्म करो क्योंकि अनासक्त पुरुष कर्म करता हुआ परमात्मा को प्राप्त करता है। इस पूरे भागवत संवाद में कर्मयोग ही जनमानास के लिए है। पर क्या वास्तव में कर्मयोग का अभ्यास भी इतना आसान है? हम नौकरी करते हैं पर साथ में धन, सम्मान और तरक्की की आशा होती है। परिवार व समाज से जुड़े होते हैं और कभी कुछ करते हैं तो अन्दर ये आशा होती है कि बदले में वो कभी हमारी किसी ना किसी तरह से मदद करेगा। कुछ नहीं तो अच्छा व्यवहार करेगा , सम्मान देगा। क्या इन अपेक्षाओं को छोड़ पाना इतना आसान है? अनासक्त रहते हुए भी कर्म करते रहना आसान है? अंत में - मैं कोई ज्ञानी नही, प्रवचन देने वाला गुरु नहीं। पढ़ने और अभ्यास की कोशिश में लगा हुआ पतित हूं।
यादें हमारी तुम्हारी
वो लम्हे जाने कहां गए,
जब आंखो में सपने होते थे।
आंखों में खुमारी होती थी,
हर पहर सुनहरे होते थे।
जब दिल भी हमारा जिन्दा था,
धड़कन में सरगम बजती थी।
करवट करवट, सिलवट सिलवट,
यादों की गवाही देते थे।
सारी दुनिया जब सोती थी,
हम भोर तलक जागे रहते।
कुछ बात तुम्हारी होती थी,
बस याद तुम्हारी होती थी।
सोचा था वक्त भी थम जाए,
हम ख्वाब वही जीते जाएं।
पर कहां गए सपने सारे,
अब कहां गई बातें सारी।
हम दुनियादारी में व्यस्त हुए,
तुम ख्वाब दफ़न करने हो लगे।
अब कहां हमीं हम ही हैं बचे,
अब कहां हमारी बात रही।
जाने क्यों ऐसा लगता है,
हम हम ना रहे , तुम तुम ना रहे।
-(भ्रमर)
उधार सी जिंदगी
जिंदगी उधार सी क्यों लगती है, जी लिए, अब बस चुकाने में लगे हैं। -(भ्रमर)