एकाक्षराय रुद्राय अकारायात्मरूपिणे । उकारायादिदेवाय विद्यादेहाय वै नमः ।। १ तृतीयाय मकाराय शिवाय परमात्मने । सूर्याग्निसोमवर्णाय यजमानाय वै नमः ।। २ अद्वितीय तथा नाशरहित प्रणवरूप रुद्रको नमस्कार है। अकाररूप परमात्मा तथा उकाररूप आदिदेव विद्यादेहको नमस्कार है ।। १ ।। तीसरे मकाररूप परमात्मा शिव और सूर्य-अग्नि-चन्द्रवर्णवाले रुद्र तथा यजमानरूपवाले महादेवको नमस्कार है ।। -- श्री लिंग महापुराण (अध्याय १८) ओंकार की महत्ता अलग अलग जगहों पर अलग अलग प्रतीकों में की गई है। प्रणव ही संबल है, प्रणव ही साधन है, प्रणव ही साध्य है। प्रणव ही ब्रह्म है, प्रणव ही ब्रह्मज्ञान है। प्रणव ही ब्रह्मा हैं, प्रणव ही विष्णु है, प्रणव ही महेश हैं। प्रणव से ही वेद है, प्रणव ही वेदज्ञान है। 🙏🙏
किसान
एक बीघा खेत, छोटा सा परिवार
कर्ज पिछले साल का लिए,
हैरान परेशान किसान से पूछो
कानून का क्या होना है।
बिहार का किसान बारिश में बाढ़ से लुटा,
पश्चिम का किसान बारिश के
इंतजार में बैठा,
उनसे पूछो जरा नए बिल का विरोध
कैसे होना चाहिए।
जरा पूछो बिल कैसा होना चाहिए।
बेटी के ब्याह के लिए खेत बेचते किसान को
रिहाना और ग्रेटा क्या समझेंगे।
क्या समझेंगे उनके पसीने की कीमत
हम जैसे लोग, जो एसी कमरे में,
ऑनलाइन ऑर्डर से सारा काम चला लेते हैं।
कानून तो पढ़ा नहीं, गांव की शक्ल देखी नहीं
पर लेफ्ट राइट करते करते राय जरूर रखते हैं।
आज वास्तविकता से दूर सभी बस मोहरे हैं,
चाल किसी और की पर हारता कोई और है।
(भ्रमर)
शिव महिमा
तुम्ही हो ब्रह्मा, तुम्ही हो विष्णु,
तुम्ही तो निर्बीज महादेव हो।
राजोगुन भी हो, तमोगुणी भी,
शुक्लवर्णी सत्वगुणी तुम्ही हो।
तुम्ही सृजन, संहार तुम्ही से,
सृष्टि तुम्हारी, प्रजा तुम्हीं से।
रिक, यजू औ सामवेद तुम्ही से,
वेद तुम्ही हो, योग तुम्ही से।
ब्रह्मरूप, आनंदस्वरुप,
तुम त्यागरूप, कल्याणरूप हो।
सिद्ध हो तुम, सर्वज्ञ तुम्ही हो,
मोक्षरूप रूद्रदेव तुम्ही हो।
गुरु तुम्हीं हो, पिता तुम्ही हो,
अर्धनारीश्वर, मात तुम्ही हो।
अ - कार, उ - कार, म- कार तुम्ही हो,
ओंकारमूर्त, प्रणव तुम्हीं हो।
श्वेत हंस रूप ब्रह्मा को,
वराह रूप वृहद विष्णु को,
ओंकार नाद से, लिंगरूप में,
ज्ञान दिया जो, महेश्वर तुम्ही हो।
हिमलिंग तुम, ऊर्ध्वलिंग तुम,
व्योम व्याप्त शिवलिंग तुम्ही हो।
आदि तुम्ही से, अंत तुम्ही से,
देवाधिदेव आदिदेव तुम्ही हो।
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होना न होना
मेरे होने ना होने से क्या किसे फर्क पड़ जाएगा,
कुछ समय याद करेंगे सब, फिर सब धूमिल पड़ जाएगा।
मैं आया क्या था लेकर, कुछ संबंधों की डोरी तो,
समय ने फिर कुछ जोड़ दिए पर राख में सब मिल जाएगा।
किसको मैंने अपना माना, किससे मेरा नाता टूटा,
इस पर क्या रोना धोना है सब यहीं खत्म हो जाएगा।
स्वर्ग यहीं है, नर्क यहीं पर, कर्मो का हिसाब यहीं होगा,
मैं लाख जतन चाहे कर लूं, जो होना है हो जाएगा।
बात कहूं दिल की जो अगर, चाहा मैंने अच्छा ही है,
यश - अपयश का सोचा तो नहीं, जो होगा देखा जायेगा।
मेरे जाने पर रोना मत, हंस लेना थोड़ा ज्यादा भले,
रोने धोने से भ्रमर भला वापस थोड़े ही आयेगा।
सच कहता हूं, सब मिथ्या है, जीवन सारा ये झूठा है,
एक मौत ही है सच् घटना है, समय से जो हो जाएगा।
ये समय से ही होना होगा, जो गया ना वापस आयेगा,
जो गया ना वापस आयेगा।।।।
-------- (भ्रमर)
शिव की लिंग रूप में पूजन
श्री लिंग महापुराण (अध्याय -१७) में श्री ब्रह्मा और श्री विष्णु के सम्मुख उमापति महेश्वर के ज्योतिर्मय लिंग स्वरूप में प्रकट होने का वर्णन है। जब ब्रह्मा और विष्णु अहंकार वश खुद को सृष्टि का पालक, संहारक और कर्ता बताकर लड़ने लगे तो उस समय महादेव एक दीप्तिमान लिंग के रूप में प्रकट हुए जिसका ना ओर दिख रहा था ना छोर। ब्रह्मा और विष्णु दोनो इसे देख मोहित हो गए और फिर ये क्या है ऐसा जानने के लिए प्रयासरत हुए।
ब्रह्मा ने श्वेत वर्णी हंस का रूप लिया और ऊपर की तरफ चल पड़े और विष्णु ने विशाल वराह रूप लेकर नीचे की तरफ गए। पर दोनो को ना उस अग्नि स्तंभ का मूल दिखा ना ही अंत।
थक कर दोनो जब वापस आए और हाथ जोड़ खड़े हुए तो ओंकार नाद सुनाई पड़ा। तब उन्हे आदि, मध्य और अंत से रहित आनंद रूप से शुद्ध स्फटिक रूप में प्रभु रूद्रदेव शिव के दर्शन हुए। तत्पश्चात उन्हे वेद ज्ञान, प्रणव की महत्ता और ब्रह्मज्ञान मिला।
महादेव ने उस समय भगवान विष्णु को ५ मंत्र दिए, जो इस प्रकार है :
१) ओंकार से उत्पन्न शुभ्र वर्ण वाला पवित्र ईशान मंत्र -
"ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानां ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणोऽधिपतिर्ब्रह्मा शिवो मे अस्तु सदाशिवोम् ।।"
२) गायत्री से उत्पन्न हरित वर्ण वाला अत्यूतम मंत्र -
"तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि । तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ।।"
३) अथर्ववेद से उत्पन्न कृष्णवर्ण वाले अघोर मंत्र -
"अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्यः । सर्वेभ्यः सर्वशर्वेभ्यो नमस्ते अस्तु रुद्ररूपेभ्यः ।।"
४) यजुर्वेद से उत्पन्न श्वेत वर्ण वाले साद्योजात मंत्र -
"सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमोनमः । भवे भवे नाति भवे भवस्व मां भवोद्भवाय नमः ।।"
५) सामवेद से उत्पन्न रक्त वर्ण वाला उत्तम मंत्र -
"वामदेवाय नमो ज्येष्ठाय नमः श्रेष्ठाय नमो रुद्राय नमः कालाय नमः कलविकरणाय नमो बलविकरणाय नमो बलाय नमो बलप्रमथनाय नमः सर्वभूतदमनाय नमो मनोन्मनाय नमः ।।"
इन्हीं पांच मंत्रों के साथ भगवान विष्णु ने फिर पुरातन पुरुष महादेव ब्रह्माधिपति शिव की स्तुति गान किया।
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शिव और ॐ
ॐ
श्री शिव महापुराण - विद्येश्वर संहिता के अनुसार
सर्वविदित होना चाहिए कि ब्रह्मा और विष्णु अहंकार वश जब आपस में युद्ध करने लगे तो महादेव सदाशिव लिंग रूप में अवतरित हुए थे। लिंग स्वरूप महादेव के अवतरण के दिन को ही शिवरात्रि के नाम से जाना जाता है।
महादेव आगे विष्णु और ब्रह्मा को ज्ञान देते हुए कहते हैं कि मैं ही परम ब्रह्म हूं। मैं सगुण और निर्गुण दोनो रूप में हूं। मैं निष्कल लिंग रूप में भी पूजनीय हूं और पंचमुख धारण किए सकल साक्षात रूप में भी।
मेरा उत्तरवर्ती मुख से अकार, पश्चिम मुख से उकार, दक्षिण मुख से मकार, पूर्ववर्ती मुख से बिंदु तथा मध्यवर्ती मुख से नाद उत्पन्न हुआ। इन पांच अवयवों से मिलकर वह प्रणव 'ॐ' एक अक्षर बना। प्रणव मंत्र शिव और शक्ति दोनो का बोधक है। इसी प्रणव मंत्र से पंचाक्षर मंत्र - "ॐ नमः शिवाय" की उत्पत्ति हुई है। उसी से शिरोमंत्र तथा चार मूखों से गायत्री प्रकट हुई। गायत्री से वेद प्रकट हुए। वेदों से करोड़ों मंत्र निकले। मंत्रों से सभी कार्य सिद्ध होते हैं। परन्तु इस प्रणव से और पंचाक्षर मंत्र से संपूर्ण मनोरथ सिद्ध होते हैं। इस मूल मंत्र से भोग और मोक्ष दोनो की सिद्धि होती है।
महादेव कहते हैं कि प्रणव मंत्र उनका ही स्वरूप है। इसके निरंतर जाप से मुक्ति मिल जाती है। वैसे तो महादेव के निष्कल और सकल दोनो रूप हैं पर मुमुक्षु पुरुष को लिंग का ही पूजन करना चाहिए। लिंग रूप महादेव का ओंकार मंत्र से और सकल रूप महादेव को पंचाक्षर मंत्र से पूजन करना चाहिए।
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ
शिव
अमूर्ते यत्पराख्यं वै तस्य मूर्तिस्सदाशिवः । अर्वाचीनाः पराचीना ईश्वरं तं जगुर्बुधाः ॥ जो मुर्तिरहित परमब्रह्म हैं, उसी की मूर्ति भगवान सदाशिव है। अर्वाचीन और प्राचीन विद्वान उन्हीं को ईश्वर कहते हैं।
शिव और अद्वैत
ॐ
श्री शिव महापुराण - रुद्र संहिता (अध्याय -१२) में भगवान शिव की पूजन के बारे में बताया गया है।
वैसे तो मुक्ति के लिए महादेव की शिवलिंग रूप में पूजन श्रेष्ठ है पर इस अध्याय में अभ्यांतर सूक्ष्म लिंग की अद्वैत भाव से को गई पूजा को सर्वश्रेष्ठ बताया गया है।
ब्रह्मा जी कहते हैं -
कर्मयज्ञसहस्रेभ्यस्तपोयज्ञो विशिष्यते ।
तपोयज्ञसहस्रेभ्यो जपयज्ञो विशिष्यते ॥ २.१.१२.४५ ॥
ध्यानयज्ञात्परं नास्ति ध्यानं ज्ञानस्य साधनम् ।
यतस्समरसं स्वेष्टं यागी ध्यानेन पश्यति ॥२.१.१२. ४६ ॥
मतलब कर्ममय सहस्रों यज्ञों (कर्म कांडों) से तप यज्ञ श्रेष्ठ है। तप यज्ञ से जप यज्ञ श्रेष्ठ है और जप से श्रेष्ठ ध्यान यज्ञ। ध्यान से योगी अपने इष्ट महादेव का साक्षात्कार करता है। महादेव भी ध्यान यज्ञ में तत्पर रहने वाले उपासक के सानिध्य में रहते हैं। ब्रह्मा जी कहते हैं कि जो विज्ञान से संपन्न है उनकी शुद्धि के लिए किसी प्रायश्चित की आवश्यकता नहीं है।
आगे कहा गया है -
लिंगं द्विविधं प्रोक्तं बाह्यमाभ्यंतरं द्विजाः ।
बाह्यं स्थूलं समुद्दिष्टं सूक्ष्ममाभ्यंतरं मतम् ॥२.१.१२.५१ ॥
कर्मयज्ञरता ये च स्थूललिंगार्चने रताः ।
असतां भावनार्थाय सूक्ष्मेण स्थूलविग्रहाः ॥२.१.१२.५२ ॥
ज्ञानिनां सूक्ष्मममलं भावात्प्रत्यक्षमव्ययम् ।
यथा स्थूलमयुक्तानामुत्कृष्टादौ प्रकल्पितम्।२.१.१२.५४॥
जो कर्म में लिप्त हैं वो बाह्य अथवा स्थूल लिंग की पूजन करें पर ज्ञानियों के लिए सुक्ष्मलिंग की पूजा का विधान है। मतलब की वो ध्यान में स्वयं में महादेव को मानते हुए पूजन करें।
ये अध्याय पढ़ने पर पता चलता है कि द्वैत रूप में मूर्ति पूजन की जरूरत श्रद्धालुओं को क्यों है। मूर्ति पूजन वास्तव में आगे बढ़ने का एक आलंबन मात्र है। भगवान ने ये भी कहा है कि ध्यान और ज्ञान मार्ग से योगी अद्वैत भाव में शिवमय हो सकते है।
सामान्य भाषा में कहें तो ये उसी तरह है कि अध्ययन में आप अगर प्राथमिक स्तर पर हैं तो आपको गुरुजन और पुस्तकों का आलंबन लेना पड़ता है पर एक अवस्था पार कर लेने पर आप स्वयं सक्षम हो जाते है और ज्ञानार्जन कि मार्ग पर आगे बढ़ सकते हैं।
भक्ति और मुक्ति के मार्ग पर हम अधिकांश जन प्राथमिक अवस्था में ही संपूर्ण जीवन बिता देते हैं। इस लिए सब ईश्वर, मूर्ति, ब्राह्मणों और मंदिरों पर निर्भर रह जाते हैं। पर अगर योग्यता और इच्छाशक्ति है तो सदगुरु मिल ही जाते हैं, जिनके सानिध्य से आप ज्ञान प्राप्त करते हैं। अंततः सतत प्रयास से, शिव ध्यान से द्वैत भाव खत्म हो जाता है। जब द्वैत - अद्वैत का ये द्वंद खत्म होता है तब साधक स्वयं शिव स्वरूप हो जाता है।
पर ऐसे ज्ञानी भक्त विरले ही होते हैं। और शिवभक्ति का आनंद ऐसा है कि कभी तृप्ति नहीं होती। शिव भक्त शिवमय हो जाने पर भी निस्कल सूक्ष्म शिव की भक्ति को तब तक नहीं छोड़ता है जब तक कि मोक्ष नहीं मिल जाता है।
ॐ नमः शिवाय।