उपनिषदों को वेदांत कहते हैं।  वेदों में जहाँ मन्त्रों और कर्मकांडो की व्याख्या की गई है वहीँ उपनषदों में उनके आध्यात्मिक पहलु को समझाया गया है।  ऐतिहासिक दृष्टिकोण से कुछ उपनिषद् बुद्ध काल से पहले लिखे गए और कुछ बाद मे।  गौतम बुद्ध और उनके सिद्धातं वेदों को महत्त्व नहीं देते थे पर ध्यान से अवलोकन करने पर लगता है  कि कम से कम उपनिषदों के दर्शन और बुद्ध के दर्शन में समानताएं है। अब बुद्ध उनसे कितना प्रभावित थे ये सिद्ध करना मेरा उद्देश्य नहीं है और मैं उस लायक भी नही।  मैं समानताओं की भी व्याख्या नहीं कर सकता पर जो भी थोड़ा बहुत पढ़ा उसमें से एक बात समझ आई कि उपनिषदों में कर्मकांडों के बजाये आध्यात्मिक रूप से “अहम्”  की बात कि गई है।  ये अहम् घमंड वाला अहम् नहीं वरन “अहम् ब्रह्मस्मि” वाला अहम् है।  यहाँ मुझे जो मतलब समझ आता है कि ब्राह्मणो के शरण में जाकर कर्मकांड में लिप्त होने के अलावा अगर खुद को उस ब्रह्म से जोड़ा जाये और उस दिशा में बढ़ा जाये तो भी मुक्ति संभव है।  बुद्ध ने भी वही कहा।  उनके नज़र में भी खुद समझ पाना ही निर्वाण  का रास्ता है।   अब ये जितना कहना आसान है, समझना और अपनाना उतना ही मुश्किल  है। 

खुद को ब्रह्म जैसा बनाने अथवा अहम् ब्रह्मास्मि वाली अवस्था में आने के लिए जो ज्ञान दिया गया वो है “ध्यान” लगाने का ज्ञान , वो ध्यान भी सही जगह सही तरीके से लगाने का।  वो  तरीका है अपने प्राण वायु पर ध्यान लगाने का।  अब जरा सोचिये जितने भी मैडिटेशन के और योग के प्रकार हैं चाहे वो बुद्धिज़्म के हों या फिर परंपरागत सनातन योग विज्ञानं के, सभी प्राण वायु पर ही ध्यान लगाने को कहते है। और फिर उस ध्यान को सभी अंगों पर घुमाने को कहते है।  ये सारी योग विद्याएं काफी बाद में विस्तार में लिखी गईं पर इन सबका आधार आपको उपनिषदों में मिल जायेगा।

उपनिषदों में ऐतिहासिक दृश्टिकोण से वृहदारण्यक उपनिषद् प्राचीन है।  काफी वृहद् ( बड़ा )  है इस लिए ऐसा नाम भी। इसी उपनिषद् के अध्याय एक के तीसरे ब्राह्मण में प्राण वायु का महत्त्व शरीर के बाकी अंगों से अधिक बताया गया है।  ये बताया गया है कि कैसे प्राण वायु पर ध्यान करके आप देव स्वरुप भावनाओं  (पॉजिटिव  एनर्जी ) को असुर रूपी  (नेगेटिव एनर्जी ) नकारत्मकता से जीता सकते है।

अध्याय एक ब्राह्मण तीन में प्रजापति और उनके पुत्रों देवताओं और असुरों के बीच में प्रभुत्व पाने की होड़ की कहानी को बताया गया है। कहा गया की देवताओं ने असुरों पर विजय पाने के लिए अस्त्रों के बजाय मन्त्रों का सहारा लेने को सोचा।  वो सामरिक युद्ध के बजाय दिव्य शक्तियों से युद्ध करके विजय पाना चाहते थे।  उसके लिए उन्होंने ने सामवेद में उद्धारित उद्गीथ मन्त्रों के जाप को सोचा। अब जाप करे तो कौन करे? तो उन्होंने सबसे पहले सबसे पहले उन्होंने ने अपनी वाणी को कहा “उद्गीथ” ।  वाणी ने समन पढ़ना शुरू कर दिया।  असुरों ने देखा कि देव  तो अजेय हो जायेंगे  तो उन्होंने वाणी पर आक्रमण किया और उसे अपवित्र कर दिया।  देव दुविधा में पद गए अब क्या करे।  फिर उन्होंने नाक  से कहा “उद्गीथ”, नाक ने समन जाप शुरू किया।  असुरों ने उसे भी अपवित्र कर दिया।  फिर देवों ने नेत्रों से उद्गीथ कहा , असुरों ने उसे भी अपवित्र कर दिया।  फिर कान की बारी आई , वो भी अपवित्र कर दिए गए।  फिर देवों ने मन से  कहा पर वो भी असुरों  ने अपवित्र  कर दिया।  अंत में देवताओं ने प्राण वायु को कहा “उद्गीथ” ।  प्राण वायु ने सामान जाप शुरू किया।  जैसे ही असुरों ने प्राण वायु पर आक्रमण किया वो मिटटी के ढेले कि तरह बिखर गए।  वो ख़त्म हो गए वो देवताओं ने आखिर में विजय प्राप्त किया। 

आगे इस अध्याय में प्राण शक्ति, मृत्यु पर विजय और सृष्टि कि उत्पत्ति के बारे में लिखा गया है।  मैं अभी आगे नहीं बढ़ पाया और अपनी ही सोच में डूब गया।  अब इसको मैं योग और प्राणायाम से जोड़ कर देखूं तो सोच पाता हूँ कि जो भी संवेदनाओं वाले अंग प्रत्यंग हैं उनके अपवित्र होने की सम्भावना प्रबल है।  मन भटक जाता है , वाणी अक्सर बुरा कहती है।  कान और आँख बुरे पर जल्दी टिकते है।  पर प्राण वायु पवित्र रहती है।  अगर प्राण वायु पर ध्यान किया जाये, प्राणायाम से इसे सिद्ध किया जाय।  उद्गीथ प्राणायाम जिसमे ओमकार या कोई और मंत्र जोड़ प्राणायाम किया जाता है, किया जाये तो प्राण वायु पवित्र होती होती है। 

प्राणायाम और ध्यान से प्राण वायु को पवित्र करने के बाद फिर ध्यान को धीरे धीरे और अंगो पर केंद्रित किया जाये तो वो भी पवित्र होने लगते है।  जब आपका मन और शरीर पवित्र होगा तो निश्चय ही मोक्ष कि प्राप्ति होगी।  इसी मानसिक और शारीरिक पवित्रता कि बात भारत वर्ष में उपजे और दुनिया भर में फैले सभी सनातन संप्रदाय करते है।  और ये सभी संप्रदाय इसी योग से मोक्ष पाने कि बात करते है।  चाहे वो बुद्ध धर्म या फिर जैन संप्रदाय। 

अंत में : मैं कोई ज्ञानी नहीं, वेदांती नहीं।  लेख कहीं से टीपा हुआ नहीं है।  स्व्यम की खोज में वृहदारण्यक उपनिषद् पढ़ना शुरू किया, पहले अध्याय में उलझते उलझते ये मेरी धरना बनी  चूँकि ये मेरा अपना मनन और चिंतन है जो बिना किसी गुरु के आशीर्वाद के है इस लिए इसके शत प्रतिशत गलत होने कि सम्भावना ज्यादा है।  आप कहेंगे फिर लिखा क्यों? तो मेरा जवाब फिर वही होगा कि अपनी समझ बनाना और लेखनी को मजबूत करना।  क्या पता इस चक्कर में कुछ समझ आ जाये या फिर कोई रास्ता मिल जाय।  आप कहेंगे कि क्या मैं इस लिखे का अभ्यास भी करता हूँ? अब मैं क्यों बताऊँ आपको? आपको सही लगे तो सोचें, अभ्यास करें नहीं लगे तो पढ़ें, मनन करें और मुझे भी सही बात बताएं।

References:

https://www.swami-krishnananda.org/brdup/brhad_I-03.html

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