आसक्ति और विरक्ति के अलावा एक और शब्द है अनासक्ति।
लोग प्रायः पहले दो शब्दों में उलझ कर रह जाते हैं। अधिकांशतः लोग किसी ना किसी व्यक्ति या 
वस्तु से आसक्त होकर जीते हैं और वो आसक्ति ही दुःख का कारण बनती है। जब बहुत दुखी हो 
गए तो विरक्त होने की चेष्टा में लग जाते हैं। बहुदा योग , ध्यान और साधना को विरक्ति 
का साधन मान बैठते हैं।
कोई योग कर रहा है या ध्यान साधना कर रहा है तो प्रायः यही समझा जाता है कि "बाबा" बन गए।
लगता है दुखी होकर वैरागी बन जाएंगे।
वैरागी होना आसान नहीं। विरक्ति सबके लिए नहीं है। श्रीमद भागवत के अनुसार हम सब जानते हैं कि
श्री कृष्ण ने तीन योग बताए - ज्ञान योग, कर्म योग और भक्ति योग। 
भक्ति योग में सांसारिक आसक्तियों से दूर होकर प्रभु की भक्ति में लीन होने के तरीके और उसके
महत्व को बताया गया है। भक्ति योग सबसे सर्वोत्तम माना जाता है।
ज्ञान योग में पार्थसारथी ने मनुष्य, प्रकृति और ब्रह्म ज्ञान का महत्व बताया।
श्रीमद भागवत के महत्व को वास्तव में कर्म योग बढ़ाता है। पुरातन काल से आजतक, साधारण 
गृहस्थ से लेकर  पेशेवर व्यापारियों और अधिकारियों तक सभी के लिए जो सफल जीवन का 
मूल मंत्र है वो कर्म योग में ही बताया गया है। और कर्मयोग बताता क्या है - अनासक्ति।
श्रीमद भागवत में प्रभु ने कहा है -
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥ ३.७
हे अर्जुन जो व्यक्ति मन से इंद्रियों को वश में करके निष्काम भाव से या  अनासक्त होकर 
कर्मेंद्रियों से कर्मयोग करता है वो श्रेष्ठ है।
आगे प्रभु कहते हैं - 
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥ ३.१८
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः।। ३.१९
उस कर्मयोग से सिद्ध पुरुष का ना ही कर्म करने से प्रयोजन है ना ही उसका कर्म ना 
करने से प्रयोजन है। और पूरे जगत में वह किसी से भी स्वार्थ का संबंध नहीं रखता।
इसलिए तुम सदा अनासक्त रहकर कर्म करो क्योंकि अनासक्त पुरुष कर्म करता हुआ 
परमात्मा को प्राप्त करता है।
इस पूरे भागवत संवाद में कर्मयोग ही जनमानास के लिए है। पर क्या वास्तव में कर्मयोग 
का अभ्यास भी इतना आसान है? हम नौकरी करते हैं पर साथ में धन, सम्मान और 
तरक्की की आशा होती है। परिवार व समाज से जुड़े होते हैं और कभी कुछ करते हैं तो 
अन्दर ये आशा होती है कि बदले में वो कभी हमारी किसी ना किसी तरह से मदद करेगा। 
कुछ नहीं तो अच्छा व्यवहार करेगा , सम्मान देगा।
क्या इन अपेक्षाओं को छोड़ पाना इतना आसान है? अनासक्त रहते हुए भी कर्म 
करते रहना आसान है?
अंत में - मैं कोई ज्ञानी नही, प्रवचन देने वाला गुरु नहीं। पढ़ने 
और अभ्यास की कोशिश में लगा हुआ पतित हूं।

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